Ekatm manav darshan Integral Humanism

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एएएएएए एएएए एएएएए INTEGRAL HUMANISM

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एकात्म मानव दर्श�न INTEGRAL

HUMANISM

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TABLE OF CONTENT राष्ट्रीय जीवन दर्श�न की आवश्यकता प्रथा संस्कृती विवचार शोषण नव्हे दोहन सिसध्दान्तन आवश्यक है जीवन दृवि) की कालानुरूप पुनर�चना एकात्म मानव दर्श�न की प्रस्तुवित मूलभूत सूत्र । धम�-अथ�-काम-मोक्ष अन्य संकल्पना (विवश्व का स्वरूप) पंच महाभूत खविनज, वनस्पती, प्राण्यांमधील एकत्वाचा शोध

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शक्ती परिरवत�नशील असते सारे अस्तिस्तत्व विवस्तार हेच जीवन, संकुसिचतता म्हणजे मृत्यू. अन्य वि@रे्शषताएँ एकात्म मानवदर्श�न के मार्ग�दर्श�क सूत्र सामाजिजक दोष विनकालना आवश्यक एकात्म मानव दर्श�न की वैश्विश्वक आवश्यकता वैश्विश्वक प्रश्नों का विनदान इस राष्ट्रीय वैभव व सामर्थ्यय� से संभव

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राष्ट्रीय जीवन दर्श�न की आवश्यकता। स्वाधीनता-प्राप्तित के बाद पि�छले 60 वर्षों� में वास्तपिवक अर्थ� में स्वतंत्रता का

उ�योग न करके �श्चि#म से आयात की हुयी पिवकास पिवर्षोंयक सिसध्दान्तो को हमने स्वीकारा तर्था कम्युपिनजम एवं �ँूजीवाद इन दोनों का मिमश्रण की हुयी पिवकासनीपित को अमल मे लाया गया।

अपिवकसिसत/ पिवकसिसत देशों के सभी आर्थिर्थ;क, सामाजिजक, राजनैपितक व सांस्कृपितक भोग आज भी अ�ने देश को भुगतने �ड रहे हैं।

�रिरस्थिCपित की जड तक �हुंचकर �श्चि#मी प्रभाव व आजके संकट की सिचपिकत्सा करनी चापिहये।

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प्रथा संस्कृती विवचार �ाय लागल्यावर नमस्कार करणे वृक्ष �ूजनजल �ूजनप्राण्यांचा आदर करणेश्रावण �ाळणे

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वृक्ष पूजन

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जल पूजन

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प्राण्यांचा आदर करणे

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शोर्षोंण नव्हे दोहन रक्त नव्हे दुध

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सिसध्दान्तन आवश्यक है । पिवश्चिभन्न सामाजिजक के्षत्रो में �ुनर्निन;मा�ण का काय� करनेवाले नागरिरकों का

सैध्दांपितक �ार्थेय समान होना चापिहये तर्था उनके काय� की दिदशा एक होनी चापिहये।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से राष्ट्रीय �ुनर्निन;मा�ण का लक्ष्य नजर के सामने रखा तर्था उस दृमिX से पि�छले 90 वर्षों� के काय�काल में सामाजिजक जीवन के अनेक के्षत्रों में �रिरवत�न लाने का प्रयत्न काय�कता�ओंने जारी रखा है।

यह सारे प्रयत्न पिवपिवध क्षेत्रों में होने �र भी साधारणत: एक ही दिदशा मे होते रहनें आवश्यक हैं तर्था उनका संकसिलत �रिरणाम अ�ने ध्येय के करीब �हुँचना यही होना चापिहये। यह सुयोग्य दिदशावेध सांस्कृपितक तत्त्वों के अमिधष्ठान�र एक मूलभूत जीवन दृमिX की सहायता से ही प्रात हो सकता है।

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जीवन दृवि) की कालानुरूप पुनर�चना । मूलभूत अनुभूपितजन्य सूत्रों द्वारा पिहन्दुओं के प्राचीन दाश�पिनकों ने तत्त्व पिवचारों

का जो जो सिसध्दान्त प्रस्तुत पिकये, वह सब सिचरंतन पिहन्दू जीवनदृमिX के रू� मे समझे जाते हैं।

यह जीवनदृमिX पिहन्दू जीवन दृमिX है क्योंपिक भूमिम को माता मानने वाले प्राचीन पिहन्दू समाज के दृXाओं द्वारा पिवकसिसत की गयी है।

उसी प्रकार यह सिचरंतन इससिलये है पिक उसका सारभूत तत्त्व अखिखल मानवजापित के सिलये सव�काल के सिलये उ�योगी �ड सकता है । ऐसी उनकी धारणा र्थी।

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एकात्म मानव दर्श�न की प्रस्तुवित । पिवगत अल्� कालमे नारायण गुरू, महर्निर्षों; दयानंद, स्वामी पिववेकानंद,

योगी अरपिवन्द व महात्मा गांधी जैसे अनेक चिच;तकों ने अ�ने सांस्कृपितक तत्त्वों का युगानुकूल रू� देने का प्रयत्न पिकया।

दश�न तो साधारणत: सूत्रात्मक तत्त्वज्ञान होता है तर्था देश-काल के अनुसार उसमें गर्भिभ;ता�र्थ� भरा जाता है।

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DEEN DAYAL UPADHYAY

Deendayal Upadhyay (25 September 1916 – 11 February1968) was an Indian philosopher, economist, sociologist, historian, journalist, and political scientist. He was one of the most important leaders of the Bharatiya Jana Sangh, the forerunner of the present day Bharatiya Janata Party.

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INTEGRAL HUMANISM A concept founded by Pandit Deendayal Upadhyaya advocates

the simultaneous and integrated program of the body, mind and intellect and soul of each human being.

He further stated that as an independent nation, India could not depend on Western concepts like individualism, democracy, socialism, communism and capitalism. He believed that Indian intellect was getting suffocated by the Western theories and ideologies and consequently, there was a big roadblock on the growth and expansion of original Bharathiya thought.

Integral Humanism, was first presented by Pandit Deendayal ji in the form of 4 lectures delivered in Mumbai on April 22-25, 1965.

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मूलभूत सूत्र ।वशै्चिhक एकात्मता । पिहन्दू जीवन दृमिX यह मानती है पिक अस्तिस्तत्व मे सारे अपिवष्कार एक ही

चैतन्यतत्त्व से पिवकसिसत होते है। �रिरणामत: पिवपिवधता से भरे हुए पिवhव्या�ार के सभी घटकों मे मूलत: एकात्मता है।

यह एकात्मता दो स्तर �र दिदखाई देता है। आत्मित्मक स्तर �र मूलत: एकात्मता व सृमिX स्तर �र पिवपिवध घटकों में प्रतीत होने वाली जैपिवक एकात्मता।

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21अस्तिस्तत्व मे सारे अपिवष्कार एक ही चैतन्यतत्त्व से पिवकसिसत होते है।

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वैयसिक्तक आत्मित्मकता से वैश्विश्वक आत्मित्मकत@ातक उत्कष� स्वयंकी अनुभूपित को व्या�क व उन्नत करना मनुष्य का मूल स्वभाव है और अध्यात्म अर्था�त

शरीर-मन-बखुिध्द के �ार जाकर अ�ने आत्मित्मक ज्ञान का पिवस्तार करना इसी ज्ञान की �रिरमिध मनुष्य को प्रात संवेदनशीलते द्वारा व्या�क होता जाता है व �रिरसर समूह तर्था सं�ूण� समाज तक इस आत्मीयता का बंध �हँुचता है।

यर्थोसिचत साक्षात्कार होने के बाद इस आत्मीयता का बंध पिनसग� तक �हँुचता है और अंत मे प्रत्यक्ष सृमिX के मूल मे स्थिCत इस चैतन्य में �रमेhर से एकरू� होने की क्षमता मनुष्य के अंदर पिवकसिसत होती है।

यह पिहन्दू जीवन दृमिX की धारणा है। व्यसिक्त -सममिX-सृमिX-�रमेमिष्ठ, एक उत्तरोत्तर उच्च स्तरकी एकात्मता की अनुभूपित होती है।

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वित्रर्गुणात्मकता प्रकृपित में अर्था�त इस Cूल सृमिX में 'सतत �रिरवत�न होना' ही काय�रत तत्त्व है।

सत्व (प्रकाश, ज्ञान), रज (पिqयाशीलता) व तम (आलस्य, जडता) ये आ�स मे असंख्य मिमश्रण बनाते रहते है जिजसके द्वारा लगातार इस सृमिX का स्वरू� बदलता रहता है।

मनुष्य का शरीर मन तर्था बुखिध्द भी इस सत्व, रज और तम जैसे पित्रगुणों का मेल है। उनके द्वारा व्यक्त होती पिवपिवध वृश्चित्तायों को ध्यान मे रखकर ही उनको सुयोग्य दिदशा देने वाली काबू मे रखने वाली तर्था उन्नती करने वाली सामाजिजक संCाओं का पिनमा�ण व संचालन करना आवश्यक है।

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सत्व , रज , तम

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चतुर्विवLध मानवी व्यसिक्तत्व शरीर-मन-बुखिध्द-आत्मा ये चार �रिरमाण मनुष्य के

व्यसिक्तत्व के चार अलग अलग �हलू नही है, बस्तिल्क इन चारों का मेल ही मनुष्य का व्यसिक्तत्व है।

एकात्म मानवी व्यसिक्तत्व की चतुर्निव;धता को ध्यान मे रखकर ही मनुष्य के जीवन व्यवहार की उत्ताम व्यवCा व्यसिक्त व समाज को पिनयोजिजत करनी चापिहये।

 

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पुरूषाथ� चतु)य �ुरूर्षोंार्थ� का अर्थ� है अ�नी इच्छा�ूर्नित; के सिलये पिकया जानेवाला

समग्र प्रयत्न। �ुरूर्षोंार्थ� की संकल्�ना मे धम�, अर्थ� , काम तर्था मोक्ष ये चार �हलू है। धम-अर्थ�-काम-मोक्ष इन चार �क्षों को इस qम में सिलखने का एक पिवसिशX अर्थ� है।

अर्थ� तर्था काम को धमा�नुसार होना चापिहये अर्था�त उनको सामाजिजक नीपित की मया�दा मे रहना चापिहये। ऐसे 'धम्य�' सुख -साधन से व्यसिक्त स्वत: का सुख, समाज पिहत, पिनसग� संतुलन तर्था अंपितम जीवन साफल्य अर्था�त सिचरंतन पिनरामय आनंद की प्राप्तित कर सकता है।

 

धम�अर्थ�काममोक्ष

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धम�-अथ�-काम-मोक्ष

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धम�

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अन्य संकल्पना (विवश्व का स्वरूप)अ�नी जीवनदृXी ऐसा मानती है पिक अस्तिस्तत्व के सभी अपिवष्कार एक ही

चैतन्यतत्व से पिवकसिसत हुऐ है। �रिरणामत: पिवपिवध अनंकार�ूण� पिवh व्यवहार के सभी घटकों मे मूलभूत एकात्मता है। अस्तिस्तत्व अनेक श्रेश्चिणयों मे भले ही दिदखाई देता हो, पिफर भी उनमे �रस्पर संबंध है।

अस्तिस्तत्व का प्रत्येक घटक अ�ने मे सं�ूण� होकर भी पिकसी व्या�क, उन्नत संरचने का एक अंशभाग ही होता है तर्था ऐसे अनेक �रस्परावलंबी, �रस्पर संबध्द घटक व रचना मिमलकर यह पिवhरचना हुई है। इसीसिलये अगर कोई भी नीपित एक के्षत्र मे या पिकसी एक स्तर �र अंमल मे लाई जाती है तो उसका न्यूनामिधक �रिरणाम अन्य क्षेत्रों व उन्य स्तरों �र हो सकता है। इससिलये हमेशा समग्र पिवचार करना आवश्यक है।

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० �ूण� व्यसिक्त १ सममिX २ कुटंुब३ समाज४ राष्ट्र ५ सृमिX६ �रमेXी

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• �ृथ्वी • आ�• तेज • वायू • आकाश

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व

�ंच महाभूत

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�ृथ्वी

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आ�

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तेज

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वायू

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आकाश

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Similarity of atomic structure and universe

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• चराचर सृXी मध्ये एकच तत्व सामावले आहे.

• पिवपिवधता दिदसत असली तरी या मागे एकच मूलभूत अस्तिस्तत्व आहे.

• सजीव - पिनज�व या संकल्�ना सा�ेक्ष आहेत.

खविनज, वनस्पती, प्राण्यांमधील एकत्वाचा शोध

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• खपिनजामध्ये सुद्धा हालचाली.कोळसा खाणीत पिहरा.

• मूलभूत अस्तिस्तत्व आहे अणुचं

• पिवघटन प्रपिqयेतून शक्ती

• quarks – energy

• शास्त्रज्ञांना turning point

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

खविनज जगत

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• वनस्पतीचा पिवकास समजतो.

• वनस्पती - गुण-वैसिशष्ठ्य - नव-पिनर्मिम;ती

• Intelligence/ Reactions/ emotions in plants

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

वनस्पतीजगत

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Sun -Power House वनस्पती, प्राणी व माणसाचा - सूय� हा उज�चा मूलस्त्रोत

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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• प्राण्यांच ेपिवकसिसत अस्तिस्तत्व

• �ुनरुत्त्�ादन, Cलांतर क्षमता

• प्राण्यांची स्मरणशक्ती, भावना .

• वत�न- पिqया / प्रपितपिqया साचेबद्ध

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

प्राणी जगत

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• मनुष्य प्रगत प्रजाती • आहार, पिनद्रा, भय, – मैर्थुन प्राणी व

मनुष्यामध्ये समान

• मनुष्यामध्ये पिवशेर्षों बुद्धी, पिववेक

• साधू – विव;चू कर्था

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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• पिवकसिसत – स्थिCती अस्तिस्तत्वा संबंधी जिजज्ञासा• – पिवचार प्रवृत्त करणारी शक्ती चेतना• जगत् संबंधी चेतना

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

...? ...? ...?

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शक्ती �रिरवत�नशील असते

शक्तीची पिवपिवध रू�े �रिरवत�नशील आहेत तर...

सूय� शक्ती गुरुत्वाकर्षों�ण शक्ती अणु शक्तीपिवद्युत शक्तीचंुबकीय शक्ती�वन शक्ती

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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• वनस्पती, प्राणी, मनुष्य �ेशी �ासून बनले

• �ेशी - कें द्रक – गुणसूते्र - जीन्स

• रसायन साखळी ..................

आ�ण आहोत तरी काय ?

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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जसे या पिवhामध्ये – तसे शरीरामध्ये�ुन्हा तेच चq --- रसायनं – अणु – protons, nucleus-quarks----energy

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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Consciousness चैतन्य सव�त्र आहे

खपिनजात चैतन्य आहे,वनस्पतीत चैतन्य आहे,प्राण्यांमध्ये चैतन्य आहे,मनुष्यामध्ये चैतन्य आहे,चराचर सृXीमध्ये चैतन्य आहे.

.... मूलभूत अस्तिस्तत्व शक्तीचे.

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सारे अस्तिस्तत्व,

सव�काही एकच आहे...

स्वतःला जाणून घेण्यासाठी...

अस्तिस्तत्त्वाचे पिनयम समजावून घेऊया ...

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अस्तिस्तत्त्वाचे पिनयम १सं�ूण� सृXी,

�रस्पर �ूरक आहे. Interconnected

�रस्पर संबंमिधत आहे. Interrelated

�रस्परावलंबी आहे. Interdependent

मानवी शरीराच्या रचनेप्रमाणेच.

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अस्तिस्तत्त्वाचे पिनयम २या चराचर सृXीतील प्रत्येक घटक हा अपिद्वतीय आहे. त्याला पिवसिशX ,

हेतूची �ूत�ता करायची असते. - Purpose

काय� करायचे असते. - Function

भूमिमका वठवायची असते. - Role

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अस्तिस्तत्त्वाचे पिनयम ३घटकाचे अस्तिस्तत्व जोवर तो �ूण�त्वाशी जोडलेला असेल तोवरच असते.

आ�ले शरीर,

प्रत्येकाचे काय� आश्चिण कृती पिकतीही अपिद्वतीय असली तरी,शरीरा�ासून पिवभक्त झालेला अवयव जिजवंत राहू शकत नाही.

हा अंगांगी भाव हे एकात्म अस्तिस्तत्व आहे.

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पिवस्तार हेच जीवन, संकुसिचतता म्हणजे मृत्यू.

० व्यक्ती १ �रिरवार २ संCा ३ समाज ४ राष्ट्र ५ �रमेXी

व्यक्ती, �रिरवार, समाजाशी जोडणे म्हणजेच योग

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पूण� व्यसिक्त मनुष्य के व्यसिक्तमत्व को शरीर, मन, बुखिध्द तर्था आत्मा जैसे स्वाभापिवक �हलू

प्रात होते है। शरीर, मन, बुखिध्द तर्था आत्मा के सुख qमानुसार उदर पिनवा�ह का पिनश्चि#त

साधन, शाप्तिन्त, ज्ञान व वादात्म्य भाव इन चार चीजों से प्रात होता है। मनुष्य के सुखकल्�ने में भी इन चार वस्तुओं के मिमलने वाला न्यूनामिधक सुख

का समुच्चय अ�ेश्चिक्षत है। अ�ने जीवन का आधार मानकर उसके संसंगत अर्थ� व काम जैसे �ुरूर्षोंार्थ� �क्ष

का पिनयोजन करना तर्था मोक्ष प्राप्तित अंपितम लक्ष्य के सिलये प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का सं�ूण� स्वरू� है। यही �रिर�ूण� मानव की कल्�ना है। यह दृXी लगातार सामने लाना �डेगा।

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समवि) सममिX की संकल्�ना में सभी प्रकार के गट व समूह अन्तभू�त है।

व्यसिक्त, गट व समूह कर संबंध जैपिवक एकात्मते का होता है। इस कारण से उनके पिवपिवध पिहतसंबंधो का �रस्परानुकूल मेल बैठ सकता है।

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कुटंुब व्यसिक्त व समाज में जैपिवक एकात्मते की प्रार्थमिमक अनुभूपित देनेवाला घटक

अर्था�त कुटंुब है जो विह;दु जीवन दृमिX की धारणा है। कुटंुब से ही बच्च �र आत्मीयता, �रस्पर उत्तारदामियत्व, सहभापिगत्व की

भावना, सहकार तर्था सामूपिहक जीवन जैसे संस्कार होते रहते है। ये सारे संस्कार समाजधारणा, स्वास्थ्य, योग-क्षेम व पिवकास की दृमिX से व्यसिक्त

को जबाबदार नागरिरक मे पिवकसिसत करने की दृमिX से आज भी महत्व�ूण� है।

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शहरी संस्कृपित के कारण आज एकत्र कुटंुब व्यवCा अव्यवस्थिCत हो गयी है। उसके अनेक कारण है आज पिवचार करते समय पिकसी भी व्यवCा मे यदिद लाया जाता है तो उस व्यवCे को जैपिवक आत्मीयता का बंधन व सामाजिजकते का अनुभव जैसे संस्कार मे कभी नही आने देना चापिहये।

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समाज समाज के सभी पिqया कला�ों के संबंध में यह ध्यान मे रखना चापिहये पिक

पिवकास की स्वतंत्रता को अबामिधत रखकर ही सं�ूण� समाज के संख की वृखिध्द होनी चापिहये तर्था वह होते हुये समाज का शोर्षोंण से मुसिक्त व सुखपिवतरण समानता के सिलये सतत प्रयत्न होना चापिहयें।

विह;दू जीवन दृमिX ने व्यसिक्त-सममिX के संबंध मे अवयव-अवयवी भाव को प्रकट करके, सामंजस्य�ूण�, सौहाद��ूण� समाज व्यवCा का पिनमा�ण करने का प्रयत्न पिकया है। अर्था�त इस तत्वत: रसिचत व्यसिक्त-समाजसंबंध मे जैपिवक एकात्मते का भी सातत्य में होने की आवश्यकता है।

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सामान्य मनुष्य के सिलये इस एकात्मते की �रिरमिध कुटंुब व �रिरसर समूह के आगे जाती ही नही है।

एक बार आ�ने अवयव-अवयवी की प्रपितमा को स्वीकार पिकया तब उसी अनुर्षोंंग से आवश्यक सहसंवेदना, समसंवेदना, सहकाय� व सामाजिजक न्याय की मानसिसकता का पिनमा�ण आवश्यक हो जाता है।

अ�ने शरीर मे यह वृश्चित्ता स्वाभापिवक रू� से पिवकसिसत होती है। समाज-शरीर मे इस संस्कार का पिनमा�ण कराना �डता है। pic

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राष्ट्र राष्ट्र का मतलब मुख्यत: लोग होते है (People are the Nation) राष्ट्र

की संकल्�ना मे समाज तो अंतभू�त है ही लेपिकन उसी के सार्थ भूमिम व उस �र की वस्तुओं का भी समावेश होता है।

राष्ट्र एक आध्यात्मित्मक व भूसांस्कृपितक तत्व है। राष्ट्र को आत्मतत्व लोग स्वत: देते रहते है। यह आत्मतत्व दो वस्तुओं, जो वास्तव में एकही है से तैयार होता है।

�रिरश्रम, त्याग और पिनXा से जो प्रदीघ� भूतकाल सं�न्न हुआ रहता है उसी भूतकाल से मनूष्य का व्यसिक्तत्व सं�न्न होता है, इसी प्रकार राष्ट्र का भी होता है। राष्ट्रवाद के सिलये भूमिमपिवर्षोंयक आदर की भावना आवश्यक है 'राष्ट्र' भावना के सिलये वह देश उन सबों का अ�नी मातृभूमिम लगनी चापिहये।

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USSR and Pakistan failed states, Germany and Israel: reunited

states USA

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USSR

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Pakistan failed states

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Germany and Israel: reunited states

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USA

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 अत: विह;दू राष्ट्र का �हला अर्थ� होगा ' यह संस्कृपित, यह मूल्य व ऐसे पिवचार माननेवालों का राष्ट्र' दूसरा अर्थ� होगा 'यह संस्कृपित, यह मूल्य व यह पिवचार माननेवाला राष्ट्र' तत्वत: ये दोनो अर्थ� उ�युक्त है पिफर भी �पिहला व्यावहारिरक दृमिX से बहुधा अमिधक उ�योगी रहेगा।

 हम जब विह;दू राष्ट्र के �ुनरूत्थान अर्थवा प्रपितCा�न की बात करते है, तब अ�ने समाजजीवन में इन मूल्यों को अच्छी तरह प्रपितCापि�त करना है, इसका ऐसा अर्थ� अ�ेश्चिक्षत है। विह;दूत्व का अर्थ� है सव�साधारण रू� से विह;दू संस्कृपित का मूल्याशय ।

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सृवि) चैतन्य का धागा सव�त्र समान होने के कारण

अस्तिस्तत्व का छोटे से छोटा घटक भी दूसरे घटको से संबंमिधत है व पिवh के कारबार में उसका भी कुछ न कुछ

काम है। अत: पिवh अर्था�त �रस्पर संबध्द �रस्परावलंबी छोटे-बडे सरंचनाओं का जाल (web of life) यह विह;दू जीवन दृमिX की धारणा है।

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1) जंगल, वर्षोंा� व �ानी का �रस्पर संबंध2) जल चq का आवत�न3) पिततली/मधुमक्खी व वनस्पपित सृमिX का आ�सी संबंध

स्त्रीकेशर तर्था �ंुकेसर का मिमलन कराके फलधारणा कराने मे मधुमक्खी, पिततली इ की सहायता।

4) मनुष्य/जीवन सुमिX-वनस्पपित �रस्पर संबंध-काब�न आक्साइड व आक्सीजन तर्था नाइट्रोजन चq का जीवनसार्थी लेन-देन।

5) Carbon cycle

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जंर्गल

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वषा�

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पानी

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जल चक्र

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पिततली/मधुमक्खी

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परमेष्ठी चैतन्य का धागा सव�त्र समान होने के कारण

अस्तिस्तत्व का छोटे से छोटा घटक भी दूसरे घटको से संबंमिधत है व पिवh के कारबार में उसका भी कुछ न कुछ

काम है। अत: पिवh अर्था�त �रस्पर संबध्द �रस्परावलंबी छोटे-बडे सरंचनाओं का जाल (web of life) यह विह;दू जीवन दृमिX की धारणा है।

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समाज - धम�चq

व्यक्ती

समाज

छोटे अस्तिस्तत्व

मोठे अस्तिस्तत्व

कम�फळ

योगके्षम

कम� यज्ञ – पिनस्वार्थ� सेवा

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अन्य वि@र्शेषताएँजीवन का तत्वज्ञान अ�नी संस्कृपित के अनूुसार �रमार्थिर्थ;क साधना तर्था प्रत्यक्ष जीवन

व्यवहार मे अंतर अर्थवा पिवभाजन नहीं होना चापिहये बस्तिल्क इनका एक दूसरे को सहायक होने वाले जीवन के दो अंग होने की, अ�नी धारणा है। पिवपिवध व्यवCा, संस्कार कत�व्य �ालन का दश�न इ द्वारा इस अनुभूपित को देनेवाला संस्कार रोपि�त करने का प्रयत्न पिकया जाता है।

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संCीकरण प्राचीन व्यवCा - यंत्रणा के युगानुकूल Cा�न के संदभ� में एक और समाजशास्त्रीय सत्य

ध्यान मे रखना मे रखना �डता हैं। आदश� पिकतना भी उदात्ता क्यों न हुआ, उसके सातत्य�ूण�, जोमदार, उ�ाययोजना द्वारा जबतक संCात्मक (Institutional) स्वरू� नही प्रात होता, आचरण मे नहीं लाया जा सकता।

संCा पिकतनी भी आदश�रू� क्यों न हो अ�नी सतत अ�रिरवत�न के कारण भ्रX होती है जो समाज के गपितशास्त्र का एक सत्य है। इस कारण आदश� संCा मे भी समयानुसाार �रिरवत�न आवश्यक है। ‘‘old order changeth, yielding place to new, test one good custom corrupt the whole world.”

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इस अर्थवा पिकसी भी माग� का अनुसरण करने �र भी एकही सत्य की प्रचीपित होती है ( एकं सत् पिवप्रा: बहुधा �दप्तिन्त।-ऋग्वेद 1.194.41) यह अनेको की अनुभूपित से दृढमूल हुई जीवन श्रध्दा है।

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ऋण कल्�ना ऋण कल्�ना पिहन्दू जीवन दृमिX मे महत्व�ूण� है। यह ऋण व्यसिक्त को जन्मत: प्रात

हुयी मानी जाती है। ऋण उतारने के करार की भूमिमका जैसा भाव यहॉ अश्चिभप्रेत नही है पिफर भी अंगभूत- स्वाभापिवक तर्था अत्मौ�म्य बुखिध्द से आने वाली कृतज्ञता व नैपितक जिजम्मेदारी का आशय इसमें है।

सामाजिजक/राष्ट्रीय चारिरत्र्य के भाव को पिवकसिसत होने के सिलये समाजऋण की संकल्�ना का व्या�कस्वरू� में पिवकसिसत होना आवश्यक है।

इस ऋण कल्�ना के कारण ही सामाजिजक व्यवहार में अ�ना जोर हक्क प्रवणते �र न होकर कत�व्य प्रवणते �र है। यह कत�व्यभावना आत्मौ�म्य बुखिध्द �र आधारिरत समरसते की भावना है।(कौटंुपिबक संबंधो मे जैसी कत�व्य-भावना होती है)

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एकात्म मानवदर्श�न के मार्ग�दर्श�क सूत्रव्यसिक्त-समाज-एकात्मता मनुष्य के जीवन के सिलये वैयसिक्तक व सामाजिजक ऐसे दो �रिरमाण होते है। मनुष्य के मन में आत्मीय ज्ञान की �रिरमिघ व्या�क होती जाती है व अस्तिस्तत्वके व्या�क व उन्नत धरातल से एकरू� होने का लगाव मनुष्य के अंदर �ैदा होता है इस सिलये मानवी जीवन के कुटंुब, �रिरसर समूह, पिवपिवध गट बंधन व समाज इन सभी मे आत्मीयता रहती है। मानव-मानव में भेद करने वाली, भेद डालनेवाली कल्�ना अर्थवा कृपित से कडाई के सार्थ दूर रहना आवश्यक है।

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मानव -मानवेतर सृमिX की एकात्मता मनुष्य की आत्मीन भावना का पिनसग� तक पिवकसिसत होना स्वाभापिवक

ही है। मानव में प्रात चैतन्य का अंश ही प्रकृपित की पिवपिवध इकाइयों मे उ�स्थिCत है इस कारण सृमिX में मूलत: जड ऐसा कुछ भी नही है इसके पिव�रीत मानव तो इस सृमिX व्या�ार का एक अंश है। इसी कारण से ही मानव व पिनसग� मे जैपिवक एकात्मता है। यह भावना समाज मे सव�दा रही है तर्था इसका उ�योग �या�वरण के संरक्षण के सिलये होगा।

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सुख सुख आत्मपिनष्ठ ह,ै वस्तुपिनष्ठ नहीं केवल वस्तु सुख नही दे सकता। मानव की भाव

भावना का सुख से पिनकट संबंध है। अन्न, वस्त्र, आश्रय, और्षोंमिध तर्था सिशक्षण वगैरह की व्यवCा आवश्यक है, पिकन्तु सं�ूण�

नही। मनुष्य को शारिररिरक सुख के सार्थ ही मन, बुखिध्द व आत्मा के सुख की भी आवश्यकता

है। शरीर, मन, बुखिध्द व आत्मा का सुख भी qमश; उदरपिनवा�ह के पिनश्चि#त साधन, शाप्तिन्त, ज्ञान व वादात्म्य भाव जैसे चार वस्तुओ से प्रात होता है ।

विह;दू चिच;तन 'सव�भूतपिहते रत:' का उदे्दश सामने रखकर 'सब को सब प्रकार का सुख' ही अ�ना केन्द्रीय उदिद्दX की घोर्षोंणा करता है। उस ने समग्र-समप्तिन्वत-एकात्मित्मक सुख को ही स्वीकार पिकया है।

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त्याग विह;दू जीवन दृमिX मे व्यसिक्त से लेकर �रमेमिX तक अखंड वर्मिघ;ष्णू मंडलाकार

(spiral) जैसी पिवकसिसत होते जाने वाली �रिरमाणोंकी तर्था उनके अनुरं्षोंग से मनुष्य के जानकारी के पिवकास की संकल्�ना है।

व्यसिक्त के ज्ञान का स्वाभापिवक रू� से अर्थवा संस्कारो से पिवकसिसत होते हुये सममिX के स्तर तक यदिद गमन हुआ तो व्यसिक्त कर उन्न�न होकर समाज के सिलये जीवन जीने समर्नि�;त होने की कृपित स्वाभापिवक रू� से हो सकी है।

व्यसिक्त समाज के सिलये क्यों सम��ण करता है, इसका एकमेव उत्तार-आध्यात्मित्मक अमिधष्ठानो द्वारा पिवकसिसत होने वाली आत्मौ�म्य बखुिध्द ही है। स्वार्थ�वादी �श्चि#मी जीवनदृमिX में इसकी समानता का कोई उत्तार नही है।

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�या�वरण स्नेह व संयमिमत दोहन मानव व पिनसग� का आ�स मे जैपिवक एकात्मता है, इसीसिलये

अ�नी संस्कृपित मे पिनसग� की �ुनर्निन;माण की प्रकृयाचq बामिधत न हो, नैसर्निग;क �या�वरण की धारणक्षमता बडे ऐसे तरीके से नैसर्निग;क संसाधन के उ�योग करने की व संयमिमत दोहन की भूमिमका है, शोर्षोंण की नही।

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संयमिमत जीवन अ�ना जीवन दश�न सामान्य मनुष्य के सहज प्रवृश्चित्ता को नकारता नही।

उ�भोग की इच्छा प्रचंड शसिक्तशाली है। पिनवृश्चित्ता की बडी बडी बातें करनेवाले बडे बडे ऋर्षोंी - मुनी भी कसोटी का समय आने �र इन इच्छाओं को रोक नही सके, पिफर सामान्यजनों का क्या कहना? इससे संबंमिधत अनेक संस्कृत अवतरण आ�को मालूम होंगेही।

'मनुष्यणां वृश्चित्तारर्थ�:' (कौदिटल्य) अर्थवा '' बलवान इजिन्द्रयग्रामो पिवद्वांसामपि� क��पित।'' (व्यास) इस जैसे पिवचारवालो ने अ�ने उद्गारो से इस सत्य स्थिCपित को मान्य पिकया है।

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मनुष्य स्वकें दिद्रत व स्वार्थ� होता है। केवल अ�ने सुख के �ीछे भागता है यह सत्य है। �रन्तु उसको प्राचीनो ने उत्ताम �ुरूर्षों नही माना। यह तो सत्य ही है पिक मनुष्य एक प्राणी है, पिफर भी उसे इस स्तर के ऊ�र जाकर दूसरों के सिलये अ�ने कत�व्यों व जिजम्मेदारी �र पिवचार करना चापिहये इतना ही नही बस्तिल्क…..

मै कौन हुँ? कहॉ से आया ? तर्था कहा जाना है? ऐसे प्रश्नो �र आत्मशोध करना चापिहये, ऐसी उन की मान्यता र्थी।

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व्यवहारअ�ना राष्ट्रीय ध्येय आज के संदभ� में समाज को अ�ने सांस्कृपितक तत्वों के आधार �र संघदिटत करें। सभी व्यसिक्तयों के न्याय, सम्मान व आवश्यकता को ध्यान मे रखकर पिवकास के सिलये अनुकूल मानसिसकता व सामाजिजक वातावरण के सार्थ ही सार्थ अवसर मिमले। अ�ने राष्ट्रीय ध्येय को हम अ�ने राष्ट्रीय जीवन दश�न के आधार �र साध्य कर सके, वही हमें अ�ार पे्ररणा देगा। अ�ने तत्वों के आधार �र ही राष्ट्र �ुनपिनमा�ण हो सकेगा। केवल �रायों की नकल करके हम जहान मे हमेशा दूसरे दज� �र ही रहेंगे तर्था कभी कभी अ�यशी भी हो सकते है।

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पिवकास पिवकाय की कसौटी केवल प्रपितव्यसिक्त राष्ट्रीय उत्�न्न नही हो सकती। पिवकास का

पिवचार करते समय प्रर्थम ध्येयपिनश्चि#पित तर्था उसे साध्य करने के सिलये उसिचत माग� का (चुनाव) महत्व�ूण� है। अत: ध्येयमाग� �रकी समतोल प्रगपित को ही पिवकास ऐसा माना जा सकता है।

इस संकल्�ना में '' मनुष्यमात्र जो �ाने की इच्छा करता है, उसके सिलये प्रयत्न करता है '' वह सब ऐसा भाव है। धम�, अर्थ�, काम तर्था मोक्ष इन चतुर्निव;ध �ुरूर्षोंार्थ� का अर्था�त् प्रात्यर्थ� के माग� �र संतुसिलत प्रवास ही मनुष्य का पिवकास है।

राष्ट्रीय पिवकास के संदभ� मे सभी समाजघटकों के कल्याण का व सुखी जीवन के पिवचार के सार्थही सुरक्षा तर्था �या�वरण इ के बारे में जागरूकता जैसे सवा¤गीण सोच को ही सम्यक पिवकास कहा जा सकता है।

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समता, समरसता प्रत्येक व्यसिक्त मे श्चिभन्नता होकर भी समानता �ाई जाती है। इन दोनो ही गुणो

का ऐसा संतुसिलत मेल कराना �डेगा पिक जिजसके कारण व्यसिक्त का पिवकास हो �रंतु वह पिवकास सामूपिहक जीवन के पिहत का पिवरोधी न हो। इसके सिलये एकात्मता के अमिधष्ठानाें �र स्वार्थ�रपिहत, संग्रहपिवरपिहत व समाज समर्नि�;त व्यसिक्तयों को पिवकाय करते हुये उन सभी व्यसिक्तयों मे ऐसे भाव जागृत हो पिक मानव समुदाय का जीवन एकही प्रकार के अस्तिस्तत्व से बना हुआ है तर्था समाज की सुखी व उत्कर्षों�मय अवCा का पिनमा�ण करने का प्रयत्न ही हम सभी का कत�व्य है।

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सामाजिजक दोष विनकालना आवश्यक धम¥�ासना को सार्थ�क होने के सिलये �रं�रा से उसमे घुसे हुये अनावश्यक पिनज�व

कम�कांड, वाह्य सिशXाचारों का आडंबर, �ंर्थीय अहंकार, दिदखाऊ उत्सवी स्वरू�, अंधश्रध्दा, सामाजिजक श्रध्दे का बाजार लगाने की मतलबी प्रवृश्चित्ता, उ�ासना व सामाजिजक नीपितओं की हुई अ�हेलना इ दोर्षोंो को समात करने के सिलये सतत प्रयत्न पिकया जाना चापिहये सार्थ ही उ�ासना माग� का व्यवहाय�, सुलभ व मूल्यानुसारी शुध्दीकरण भी होना चापिहये।

विह;दू धम� व विह;दू धम�य लोगों �र जब अन्य कट्टर धम�यों द्वारा धम� के नाम �र आqमण शुरू हुआ तब विह;दू धम� के दाश�पिनकों द्वारा कालानुरू� धम�रक्षण व स्वधम�यो कां जुल्म जबरदस्ती से हो रहे धम� �रिरवत�न रोकने की कोई व्यवहाय� व उसिचत उ�ाय तर्था पिकसी सिसध्दांत का भली भॉपित पिनयोजन नहीं पिकया गया।

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इस दृमिX से मुस्थिस्लम आqमण के प्रारंश्चिभक काल में देवल स्मृपित, गोवा के ब्राह्यणों द्वारा अनुसरिरत व्यवहाय� व सुलभ ऐसा शुध्दीकरण का उ�ाय अर्थवा सिशवछत्र�पित द्वारा पिकया गया शुध्दीकरण्ाा का प्रयोग यदिद अ�वादात्मक न होकर साव�पित्रक पिनयम बना होता तो आज विह;दू धम� �र जो धमा¤तर के संकट का वज्र�ात हुआ है उससे बचाव संभव र्था।

धमा¤तरिरतों के व्या�क �रावत�न के सार्थ आग्रही प्रसरणशीलता का अवलंबन आवश्यक है।

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एकात्म मानव दर्श�न की वैश्विश्वक आवश्यकता

जागपितक प्रदूर्षोंण गरीबी आर्थिर्थ;क पिवर्षोंमता बेरोजगारी अपिनब¤ध उ�भोगवाद बढता मानसिसक तनाव

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जागपितक प्रदूर्षोंण एकात्म मानव चिच;तन व संस्कारो

से पिनसग� से जो संबंध जुडते है उन्ही के आधार �र �या�वरण का संरक्षण हो सकता है तर्था वातावरण मे आये घातक बदलाव को टाला जा सकता है।

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गरीबी अंत्योदय के दृमिXकोण से पिवकास की प्रकृया को प्रामुख्य से

सभी देशों के वंसिचत वग� के इद�पिगद� ही कें दिद्रत करना �डेगा। आज से संसार की सारी गरीबी को मिमटाने के सिलये साधन व सं�श्चित्ता की कमी है ऐसा नही है बस्तिल्क इसका बडा भाग तर्थाकसिर्थत पिवकसिसत राष्ट्रों के कब्जे मे होने के कारण तर्था अ�ने सतत बढते उ�भोग के सिलये पिनब¤ध उ�योग सुरू रखने से समस्या का समाधान नही पिनकल सकता है। इस समस्या को हल करने के सिलये ''सबसे नीचे स्तर के उ�ेश्चिक्षतों के पिहत को प्रधानता से रक्षा होनी चापिहये'' ऐसी मानसिसक सोच केवल ऐकात्म मानव दश�न से ही प्रात हो सकती है।

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आर्थिर्थ;क पिवर्षोंमता �हले सं�श्चित्ता का पिनमा�ण होने दे और बाद में उसका न्याय�ूण� पिवतरण हो

सकेगा, ऐसा यह आशावाद पि�छले 50 वर्षों¥ के अनुभव में झूठा सापिबत हुआ है। सं�श्चित्ता का पिनमा�ण होते ही येन केन प्रकारेण धीरे धीरे ही क्यों न हो दूसरों में पिवतरिरत होगा। यह �रिरस्त्रावण सिसध्दांत (Percolation Theory) भी काम नहीं करता जैसा पिक जागपितक स्तर �र सिसध्द हो चुका है। इसी सिलये सं�श्चित्ता का उत्�ादन व पिवतरण एक ही सार्थ होना चापिहये। यह दृमिX व हेतु होना चापिहये। एकात्म दृमिX होने से यह सहज प्रवाही होता है।

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बेरोजगारी व्यसिक्त को समाज में सम्मान�ूव�क जीवने के सिलये व उसकी

आंतरिरक आवश्यकतानुसार ही उत्�ादक काय� होना चापिहये। यह काम नौकरी के स्वरू�मे ही हो ऐसा नही है। स्वयंरोजगार के स्वरू�् मे भी हो सकता है। सभी को ऐसा अवसर उ�लब्ध कराने की प्रपिqया हर एक योजना का एक महत्व�ूण� घटक हो। अल्� बचत योजना भी आवश्यकता होगाी। इस प्रस्ताव को कें द्र मे रखकर यदिद दूसरे अर्थ� व्यवहारो का सव�क्षण पिकया जाय तो बेरोजगारी की समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकेगा तर्था सामाजिजक स्वास्थ्य मे भी सुधार आयेगा।

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अपिनब¤ध उ�भोगवाद आज की पिवकास �ध्दपित के अनुसार अमिधकामिधक उ�भोग से

अमिधकामिधक सुख मिमलेगा। इस प्रकार के प्रचार की मरमार करके उ�भोगवादी प्रवृश्चित्ता को उत्ताजना दी जा रही है। इससे ज्यादा उ�भोग के सिलये ज्यादा उत्�न्न करने �र दबाव आता है व ज्यादा उ�भोग से तृप्तित मिमलेगी ही इसकी खात्री नहीं होती।

इस �र पिवजयप्राप्तित के सिलये संयत उ�भोग का व्यावहारिरक आदश� एकात्म मानव दश�न देता है।

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बढता मानसिसक तनाव अपिनब¤ध उ�भोग व उसके सिलये दबाव से मानसिसक तनाव

उत्�न्न होता है। वैसे ही मनुष्य की कोई कीमत नही रहने , अर्थवा एक जड �दार्थ� की ही मत करनेवाली उत्�रदन �ध्दपित के कारण �रात्मभाव (Self alienation) बढने लगता है।

यह मावस� के समय से ही चचा� में है। इन सब का संकसिलत �रिरणाम ही मनोकामिमक रोगों की संख्या में प्रचंड वाढ का कारण है। इसका इलाज भी एकात्म मानव दश�न में ही मिमल सकेगा। इसके अपितरिरक्त योग व आयुव�द का उ�योग भी इस�र प्रभावी होगा।

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वैश्विश्वक प्रश्नों का विनदान इस राष्ट्रीय वैभव व सामर्थ्यय� से संभव

आज के प्रश्नों का उत्तार खोजते समय एक तरफ हमे अ�ने तत्वज्ञान का सहरा लेना �डेगा तर्था दूसरी ओर आधुपिनक पिवज्ञान/तंत्रज्ञान की सभी शाखाओं को भलीभॉती आत्मसात करके समाज पिहत के सिलये उनका उ�योग करना �डेगा। आध्यात्म व पिवज्ञान के संतुसिलत चिच;तन के प्रकाश मे हमे मनुष्य की समस्याओं के पिनदान का माग� खोजना �डेगा।

(योग द्वारा) , भौपितक वैभव के सार्थ �या�वरण के संतुलन की संरक्षा, स्वावलंबी ग्राम व्यवCा इ की क्षमता को अ�ने मे आज के प्रश्नों से छुटकारा �ाने के सिलये प्रCापि�त करता �डेगा। इसीसे अ�ना राष्ट्रीय �रम वैभव सवा¤गसपिहत खडा रहेगा व संसार में उसे सुयोग्य Cान की प्राप्तित होगी। अ�ना ऐसा समर्थ� व वैभवशाली राष्ट्र ही संसार को कल्याणाकारी माग� �र ले जा सकेगा।

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Compiled by Dr. CA. Varadraj Bapat, Faculty in Finance, IIT Bombay Edited by Ms. Aishwarya Torne

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