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दैिनक भासकर SUNDAY 09 08 2015 PAGE 04 दैिनक भासकर पॅट नं.-11-12 सेकटर-25 डी, चंडीगढ़-160014 [email protected] यह अंक आपको कैसा लगा? आप इसम और कया-कया पढ़ना चाहते ह। हम र बताएं। हमारा पता— -राजकुमार केसवानी लेखक, संगीत और ससनेमा की गहरी समझ रखते ह। आपस की बात आईएस जोहर इश-मुहबत के नाम पर स दिल हाथ म दलए दिरते थे। और ग़ज़ यह दक वो अपनी ज़हनी तात के ूते इसम कामया भी हो जाते थे। उनहने उ भर अनदिनत इश दकए और शायि आधा िजन शादियां भी क... हते ह ख़ुदा ने इंसान को और इंसान ने कहकहे को ईजाद सकया। कहकहे ने मसख़रा ईजाद सकया और मसख़रे ने इंसानी सहमाकत को पहचानने का हुनर ईजाद सकया। इंसान इन सहमाकत को और की सहमाकत मानकर कहकहे लगाता है। उस घड़ी वह अपने ग़म भूल जाता है। हम सब अकसर इसी ग़लती को दोहराते ह। हम ज़माने भर की सहमाकत म और के अकस नज़र आते ह। अपनी शकल और अपना नाम हमेशा दुसनया की सबसे हसीन और सदलकश चीज़ के साथ ही नज़र आता है। जो लोग अपनी इस कमज़ोरी से सनजात पा लेते ह। वह अपनी ख़ूसबय को थपकी देकर सुला देते ह और अपनी कमज़ोररय पर सबसे ज़यादा हंसते ह। आईएस जोहर नाम का यह मसख़रा भी यही काम करता था। मसख़रे जैसे लफज़ को हलकी तरह से लेने वाल से गुज़ाररश है सक वो ख़ुदा के वासते अंेज़ी के ‘काॅमेसियन’ के बोझ से सनजात हाससल कर और इस लफ़ज़ को समझने की एक और कोसशश कर ल। समझ म आ गया तो बड़ा मज़ा आएगा और अगर न आया तो मेरी कम-अक़ली पर तो हंस ही सकते ह। नतीजा हर हाल म ख़ुशी का अहसास ही होगा। हां तो आईएस जोहर... जैसा सक म पहले ही अज़ कर चुका हूं सक वे सलखने म उसताद थे और इफ़रात से सलखते थे। रेसियो-टेलीसवज़न और ‘सिलमिेयर’ के अलावा उस दौर की मशहूर उदू पसका ‘शमा’ म भी एक कालम सलखते थे। नाम था – ‘जोहर – बकलम ख़ुद।’ इस कालम के ज़ररए वो और की बसखया उधड़ने के साथ ही साथ ख़ुद की भी ऐसी बसखया उधेड़ते थे सक सजसम बड़े से बड़ा उसताद भी टांके न लगा सके। 1968 म एक मतबा उनहने अपनी िैन मेल म से छांटकर कुछ ख़त सनकाले सजनम उनको ‘लेफट हिेि कामलीमट’ यानी ‘उलटे हाथ से सलाम’ सदए गए थे। उनहने बड़े चसके ले-लेकर इन ख़त को पेश सकया था। मसलन कानपुर से सकनही दयानंद साहब का एक ख़त था, सजसम सलखा था : ‘जाॅनी वाकर, महमूद और राजनाथ की काॅमेिी सबलकुल बचकाना है। आपकी काॅमेिी म इतनी गहराई है सक हंसी सबलकुल नह आती।’ इसी तरह दूसरा ख़त। भोपाल से अज़ीज़ अहमद का था सजनहने सलखा था – ‘सिलम ‘गोआ’ म आपकी एककटग लाजवाब है। ख़ुदा से दुआ करता हूं सक आप सदन दुगनी और रात चौगुनी तरककी करते हुए एक रोज़ अचछे एकटर बन जाएं।’ इनह ख़त म से एक ख़त सकसी लड़की का था सजसम उनकी चाररसक कमज़ोरी की बात कही गई थी। यह हक़ीक़त है सक जोहर एक ख़ास सकसम से बदनाम भी बहुत थे। इशक़-मुहबबत के नाम पर बस सदल हाथ म सलए सिरते थे। और ग़ज़ब यह सक वो अपनी ज़हनी ताक़त के बूते इसम कामयाब भी हो जाते थे। उनहने उ भर अनसगनत इशक़ सकए और शायद आधा दजन शासदयां भी क। पहली पी रमा बंस से भले ही आसख़र तक ेम का नाता बना रहा लेसकन अलगाव कािी पहले हो गया था। सिर उनकी सज़ंदगी म ोसतमा बेदी भी आ। सस केमरामेन जाल समसी की पी मीना समसी को भी एक सकेट मैच देखते-देखते ले उड़े। अब अगर बात यहां उनके इस सदलिक अदा तक आ ही पहुंची है तो ज़रा पीछे जाकर उनकी शुआती सज़ंदगी म झांक ल, जहां वो अपनी बेहद की उ म पड़ोस की एक बी से इशक़ िरमा रहे ह। इस बी का नाम था रमा। ‘म उसे तब से जानता था जब म उसकी नाक पछने की उ का हो चुका था।’ (आईएस जोहर) शुआत म यह रोमांस एक तरफ़ा था, लेसकन जब आईएस जोहर के सलखे नाटक म रमा ने साथ म असभनय सकया तो दोन तरफ़ आग बराबर हो गई। 1943 म मोहबबत की इस आग ने सदल से सनकलकर पसव अस का प ले सलया, सजसके सगद सात िेरे लेकर इनदर सेन और रमा सववाह के बंधन म बंध गए। शादी के फ़ौरन बाद ही एक के बाद एक दो बे भी हो गए। एक लड़का असनल और दूसरे लड़की नीलम, सजसे बाद म जोहर ने सिलम म अंसबका जोहर के नाम से सिलम म पेश सकया। शुआती दौर म पसत-पी के बीच बड़ा गहरा ेम बना रहा। बंटवारे के बाद जोहर पररवार पूरी तरह सड़क पर आ चुका था। रमा जी ने उन सदन की याद करते हुए एक बार कहा था – ‘एक झटके म हम अचानक सड़क पर आ खड़े हो गए। दो छोटे-छोटे ब का साथ था। ऐसी मजबूरी की हालत म सबना अंजाम की परवाह सकए म इंसिया गेट (सदलली) के पास एक ख़ाली पड़े बंगले की सखड़की का कांच तोड़कर अंदर घुस गई। सिर धीरे से अपने पररवार समेत वहां रहना शु कर सदया। सरकार ने इस अवैध कबज़े से भगाने के सलए सरकारी लोग आए सदन हमारे घर का सबजली कनेकशन काट देते। जोहर तब जालंधर म थे। तब चाचा खंबे पर चढ़कर वापस कनेकशन जोड़ देते थे।’ जब 1948 के आसपास यह पररवार बमबई पहंुचा तो वहां भी दोन ने समलकर संघर सकया। पसत के साथ सलखने म मदद की। सिलम ‘नाकसतक’ म तो बाकायदा उनका नाम बतौर िायलाॅग राइटर भी पेश सकया गया। जोहर की कामयाबी का दौर आया और सिर रमा के मन म न जाने कया आई सक सबना तलाक़ सलए ही पसत से अलग होकर अपने एक ररशते के भाई हरबंस से शादी कर ली और रमा बंस कहलाने लग। इस घटनाम ने जोहर की सज़ंदगी का ख़ ही पलट सदया। जोहर को रमा से सचमुच बेहद यार था। रमा के यूं चले जाने के बाद सदल ने इस क़दर बग़ावत कर दी सक उसने औरत को महज़ अपनी ऐयाशी का सामान मान सलया। इस वजह से बदनामी भी बहुत हुई सजसकी सफ़ जोहर ने कभी नह की। उधर रमा ने दूसरी शादी कर तो ली लेसकन जलद ही इस शादी से उनका मोहभंग हो गया, सो इस दूसरे पसत को भी तलाक़ सदए सबना सदलली छोड़कर वह एक बार सिर वापस बमबई जा पहुंच। ताज होटल म हेलथ कलब की मैनेजर हो ग। इस दौर म उनकी मुलाक़ात सस लेखक-पकार ख़ुशवंत ससंह से हुई जो पाबंई से हर रोज़ ताज के हेलथ कलब जाते थे। ख़ुशवंत ससंह ने सलखा है सक अलगाव के बावजूद जोहर और रमा के बीच एक अजब ररशता कायम था। ‘रमा उसके (जोहर के) लोटस कोट वाले घर हर हफते जाती थी। जोहर को जब पता लगा सक मेरी और रमा की दोसती है तो मुझे भी नयौता भेजा। कई महीने तक म हर हफते वहां मेहमान रहा। जोहर सकेट कलब आॅि इंसिया से, जहां वो सज खेलने जाता था, हमारे सलए चाइनीज़ िूि और बेहतरीन सकाॅच सवसकी ले आता था। ये दोन समयां-बीवी तो शराब नह पीते थे लेसकन म ज़र तीन पेग मार लेता था।’ और... है न अजब ेम की ग़ज़ब कहानी ? इस पररवार की कहानी अगली बार भी जारी रखते हुए इस कहानी को आगे बढ़ाएंगे तब तक ज़रा एक बात पर सदल-सदमाग़ को एक साथ शासमल सोसचए सक आसख़र ीत के धागे सकस शय के बने होते ह सक जोड़े से न जुड़ते ह और टूटे से न टूटते ह। बकौल चचा ग़ासलब ‘इशक़ पर ज़ोर नह है ये वो आसतश ग़ासलब / सक लगाए न लगे और बुझाए न बने।’ समझ म आए तो अचछा और न समझ आए तो ऊपर देखकर ‘भाई समयां’ को सलाम कर। और हो सके तो कह द ‘तुमहरी गत-मत तुम ही जानी, नानक दास सदा क़ुरबानी...’ जय-जय। जोहर को रमा से सचमुच बेहद पार था। रमा के ं चले जाने के बाद ददल ने इस क़दर बग़ावत कर दी दक उसने औरत को महज़ अपनी ऐाशी का सामान मान दला। इस वजह से बदनामी भी बहुत हुई दजसकी द जोहर ने कभी नह की। 1948 के आसपास जोहर का पररवार बमबई पहंुचा तो वहां भी दोन ने मिलकर संघर मकया। रिा ने पमत के साथ मलखने ि िदद की। मिलि ‘नासतक’ ि तो बाकायदा रिा का नाि बतौर डायलाॅग राइटर भी पेश मकया गया। 12 अिसत 1942 चंल घाटी के औरेया दज़ले के तहसील भवन पर लिे ग़ुलामी के तीक यूदनयन जैक को उतारकर दतरंिा िहराते हुए छह िेशभकत ने शहाित िी थी... इस ांदत म मेरे बाएं पैर म गोली लगी, दगरफ़तारी हुई, मुकदमा चला। ददलचसप बात ह है दक हम सबसे कम उ के थ े, इसदलए 100पए का ज़ुमाना लगा। काितिदवस पर िवशेष -शाह आलम कलाब की सरजम "औरेया' भारतीय ां सतकारी आंदोलन के इसतहास का ऐसा जगमगाता दसतावेज़ है, सजसके हर पे पर रणबांकुर के दहकते दसतख़त ह। 12 अगसत 1942 चंबल घाटी के औरेया सज़ले के इसतहास की वह तारीख़ है सजस सदन तहसील भवन पर लगे गु ़लामी के तीक यूसनयन जैक को उतारकर सतरंगा िहराते हुए अंेज़ की गोसलयां सीने पर खाकर छह देशभकत ने शहादत दी थी। दज़न ांसतवीर घायल हुए, सैकड़ आंदोलनकारी सगरफ़तार हुए, इतना ही नह पूरे शहर पर जु ़माना लगाया गया। इस घटना से ां सत की जवाला जलाने वाल म आोश िैल गया। सिरंसगय के जु ़लम के सखलाफ़ पूरा जनमानस उबल पड़ा। अगसत ां सत म ससय प से शासमल एक मा जीसवत ांसतकारी सवजय शंकर गुता उस दौर को याद करके बताते ह सक 11 अगसत को बलदेव साद, छाककीलाल दुबे की अगुवाई म नुमाइश मैदान पर सवासथय के साथ बैठक का दौर जारी था सक इतने म यहां का थानेदार रामसवप और दीवान खुन पहुंचकर इन वररषठ नेता को बैठक ख़तम करने के सलए गाली-गलौज करने लगा। अपने अगु का अपमान देख गम ख़ून के नौजवान तक़रीर ससंह, सशवशंकर, मंगली साद, वनसपसत ससंह, कौशल सकशोर शु कला की जोड़ी ने थानेदार की जमकर धुनाई कर दी। ख़ैर बैठक म 12 अगसत के सदन तहसील भवन पर सतरंगा िहराने का खाका तैयार हुआ, लेसकन सखससयाए व सपटे थानेदार ने रात को ही वररषठ नेता के घर पर छापे मारकर सगरफ़ताररयां शु कर द। सवजय दा बताते ह सक उन सदन वह पढ़ते थे। मुख नेता की अनुपकसथसत म आंदोलन को कै से धार दी जाए यह बड़ा था? तब हमारे साथ पढ़ने वाले सशवशंकर लाल सकसेना, वनसपसत ससंह आसद ने समलकर सज़ ममेदारी ख़ुद पर ली, सजसका नतीजा रहा सक 12 अगसत को एबी हाई सकूल और सं सकत पाठशाला के सवाथ अपने सकूल न जाकर पुरानी धमशाला पहुंचे थे सक खानपुर, पैगमबरपुर, दयालपुर गांव के छा भी धमशाला आ धमके। 12 अगसत 1942 को सुबह 10 बजे सवशाल हुजूम तहसील भवन कूच सकया। हज़ार की तादाद म अंेज़ी हुकूमत के सखलाफ़ गगनभेदी नारे लगाते हुए जब यह कारवां तहसील पहुंचा तब थाना इंचाज़ जगाथ ससंह और ससकल इं सपेकटर रामजी लाल ने छा से वापस लौटने को कहा, ले सकन नौजवान यूसनयन जैक उतारने पर अमादा रहे। तहसील भवन की छत पर जब जाने का रासता नह समला तो मंगली साद, कौशल सकशोर शु कला और एक अनय साथी ने चौराहे पर सनमाणाधीन सतलक इंटर काॅलेज से बड़ी नसैनी लाकर तहसील भवन की दीवार पर सटका दी। जै से ही छा ने नसैनी के सहारे चढ़ना शु सकया, ससपासहय ने लासठयां बरसानी आैर पु सलस ने सखड़सकय से गोसलयां दागनी शु कर द। जुलु स म शासमल छा भी सखड़सकय से ट पतथर िकने लगे। उस दौरान कई ां सतकारी युवक ने शहादत दी और दज़न ांसतवीर घायल हुए। मेरे बाएं पैर म गोली आर-पार हो गई थी, सगरफ़तारी हुई मुकदमा चला। सदलचसप बात यह है सक हम सबसे कम उ के थे, इससलए 100पए का ज़ुमाना लगा। 2 जनवरी 1928 को जनमे इंकलाबी सवजय शंकर गुता शहर म पूरे पररवार के साथ रहते ह, वे अपने सं समरण सुनाकर नई पीढ़ी को रोमामंसचत करते रहते ह। दहंिी को चाने-ढ़ाने की ज़री-िैरज़री हस से िूर इन -दकशोर के पास अपना कथय और अपनी भाषा है। इनके पास अपनी कहादनयां ह। ये कहादनयां इनकी रोज़मरा की दज़ंििी की आंच म पकी हुई ह... भारती राजनीदत की तरह ही दहंदी सादहत म भी ‘ुवा’ होना एक सुदवधा है। इस सुदवधा का लाभ इस भाषा म बसर करने वाले देर तक ा कह दर तक उठाते आए ह। -अववनाश वम दी सासहतय म यह दौर ‘घुसपैठ’ का दौर है। घुसपैठ एक नकारातमक शबद और सया है। इन सदन इस ‘घुसपैठ’ का, अगर घुसपैठ ही कहा जाए तो, एक सकारातमक और साथक आयाम दृशय म उपकसथत है। यह उपकसथसत सासहकतयक माससक पसका ‘हंस’ म ‘घुसपैसठए’ शीरक सतंभ के अंतगत है। इस सतंभ म सदलली के सलम म रहने वाले सकशोर लेखक का ग कासशत सकया जा रहा है। सहंदी को बचाने-बढ़ाने की ज़री-गैरज़री बहस से दूर इन ब-सकशोर के पास अपना कथय और अपनी भारा है। इनके पास अपनी कहासनयां ह। ये कहासनयां इनकी रोज़मरा की सज़ंदगी की आंच म पकी हुई ह। इनके पास कहने के सलए जो यथाथ है, वह सबसे से अथ म इनका देखा-झेला हुआ है। सहंदी के कथा-सासहतय को अगर उसके परंपरागत आयाम म देखा जाए तो वह सनरंतर अपनी पठनीयता और पाठकीयता दोन ही खोता चला गया है। आज कसथसत यह है सक इसके साथ आसदवाससय-सा बताव हो रहा है। सीधे सदलली की पुनवास और कामगार बकसतय से सनकल कर आ रहे सहंदी लेखक इस दृशय को बदल सकते ह, अगर काइयां सवाथ से उनके आतम-सवशवास को आहत न सकया जाए तो। ‘यूथ की आवाज़’ नाम की वेबसाइट पर माससक सतंभ ‘शहर हमारा है’ के अंतगत भी इन लेखक का कथय पढ़ा जा सकता है और ‘बहुसपया शहर’ नाम की सकताब म भी। ऐसी ही एक लेसखका यशोदा ससंह की सकताब ‘दसतक’ वररषठ कथाकार उदय काश की देख-रेख म आ चुकी है, लेसकन आज से करीब िेढ़ वर पहले जब सासहकतयक ैमाससक पसका ‘अकार’ ने अपना 37वां अंक पुनवास बकसतय म सलखी जाती सासहतय की इस नई इबारत पर कसत सकया तो सहंदी की यह ज़मीन एकदम से सहंदी की मुखयधारा म नज़र आई। पसका के संपादक वररषठ कथाकार सयंवद ने संपादकीय म अपने इस अनुभव को साझा सकया है। ‘अंकुर सोसायटी िॉर ऑलटरनेसटज़ इन एजुकेशन’ नाम की संसथा से जुड़े भात कुमार झा के इन ब के बीच जाने के आह पर सयंवद कहते ह, "सदलली म भात से मुलाकात हुई। बातचीत के दौरान भात ने पूछा सक कया म पुनवास बकसतय के ब के साथ दो सदन दे सकता हूं। म बात समझ नह पाया। कय? मेरी सहज सजासा थी। तब भात ने सवसतार से बताया सक वह उन ब के साथ काम करते ह और उनके अंदर के लेखक को जगाना या ेररत करना उनका उेशय है।' सदलली कसथत इस संसथा के छह क इस गसतसवसध म लीन ह। इसके तहत ‘रचने का असधकार’ पर लगातार काम सकया जा रहा है। बे ससफ़ बे नह वे ोता, दशक, पाठक, वक़ता, लेखक, कसव, असभनेता, सचकार, पकार बकलक वे रचनाकार भी है। सयंवद ने इसके सलए हामी भर दी और इन ब के बीच गए। उनहने पाया सक ये बे 14 से 18 वर के बीच म थे। लगभग सभी दसव से बारहव के छा। इन नए लेखक की भारा आज की भारतीय भारा है। इसम रोज़मरा के शबद ह सजनम उदू, सहंदी, अंेज़ी और आंचसलक भारा-बोसलय के शबद-वाकय-मुहावर का समावेश है। ये बहुत संग म बहुत बार कायातमक वाकय भी सलख जाते ह। लेसकन ये कसवता के ‘िॉम’ से मुकत ह। इनकी कहन सहंदी के परंपरागत ढांचे से बेहद अलहदा है। ‘जैसा देखो वैसा सलखो’ यह इनकी लेखन-शैली का ाथसमक पद है। भात कुमार झा कहते ह, "इनह सुनना महतवपूण है और हमारी सज़ममेदारी है। सुनना एक लोकतांसक सया है। रचनातमक सामूसहकता और सामूसहक यााशत के सलए सुनना ज़री होता है।' कुछ वाकय उनकी संसथा के सलोगन की तरह ह, जैसे : "हर देखने वाले के पास सदखाने को कुछ है। हर लेने वाले के पास बांटने को कुछ है। हर पढ़ने वाले के पास सलखने को कुछ है। हर सुनने वाले के पास कहने को कुछ है।' वह कहते ह सक इन ब के लेखन और इनकी सथानीयता के बगैर सदलली पर होने वाले सारे शोध अधूरे ह। सजन शबद को छापाखान ने जगह नह दी, जो शबदकोश से बाहर रह गए, सजनसे हुकूमत बचती ह, जो सकताबी भारा की तरह और टकसाली और याकरण-सममत नह ह... ऐसे बहुरंगी शबद-लोक को सलसखत-मुसत यवहार म लाने को भात एक ज़री कायभार मानते ह। भारा के, सशा के, आजीसवका के संकट के बीच ये लेखक बड़ी संखया म एक ही समय म एक साथ उभर रहे ह।
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